त्रेता युग में रावण से माता सीता की रक्षा के लिए जटायु ने अपने प्राण त्याग दिए थे. ये वही जटायु थे जिन्होंने रावण की अपार शक्ति को जानते हुए भी उससे युद्ध किया और उसके कब्जे से माता सीता को छुड़ाने की पूरी कोशिश की. लेकिन ये भगवान राम का प्रताप ही था, जो मृत्यु भी जटायु की इच्छा के बगैर उन्हें छू भी नहीं सकी.
जिस वक्त रावण ने जटायु के पंख काट दिए थे, उस वक्त जटायु ने काल को ये कहकर रोक दिया था कि जबतक मैं माता सीता का समाचार प्रभु श्रीराम को नहीं सुना देता, तब तक मुझे मत ले चलना. कहते हैं कर्म का फल सबको भोगना ही पड़ता है. एक तरह से देखा जाए तो इच्छामृत्यु जटायु को भी मिली और द्वापर युग में भीष्म पितामह को भी मिली. दोनों ही भगवान के अनन्य भक्त थे, लेकिन फर्क सिर्फ इतना रहा कि माता सीता को बचाने के लिए जटायु को अंतिम समय में प्रभु श्रीराम की गोद रूपी शैय्या मिली, वहीं द्रौपदी का भरी सभा में अपमान देखने के कारण भीष्म पितामह को अंतिम समय में बाणों की शैय्या मिली.