असुरों के गुरू शुक्राचार्य के पास मृतक को दोबारा जीवन देने वाली मृत संजीवनी विद्या थी. शुक्राचार्य के पास इस विद्या के होने से देवता हमेशा चिंतित रहते थे, लेकिन ये विद्या उन्हें इतनी आसानी से नहीं मिली थी. इसके लिए उन्हें शिव जी की कठोर तपस्या करनी पड़ी थी.
पौराणिक कथा के अनुसार जब शुक्राचार्य ने असुरों के गुरू बनकर उनकी रक्षा करने का संकल्प लिया, तब उन्होंने सोचा कि मृत संजीवनी विद्या के बगैर देवताओं को नहीं हराया जा सकता. इसके लिए वे भगवान भोलेनाथ की तपस्या में चले गए. उधर देवताओं ने मौके का फायदा उठाते हुए असुरों पर हमला कर दिया. शुक्राचार्य को तपस्या में लीन देखकर असुर उनकी माता की शरण में चले गए. जब कोई देवता असुरों को मारने आता, माता की शक्ति से वो मूर्छित हो जाता. असुरों के प्रभावशाली होने और पाप बढ़ने के कारण भगवान नारायण ने अपने सुदर्शन चक्र से शुक्राचार्य की माता का सिर काट दिया. जब शुक्राचार्य को अपनी माता की मृत्यु का पता चला, तो उन्होंने विष्णु जी से बदला लेने का निश्चय किया और फिर से शिव जी की कठोर तपस्या करने लगे. कई सालों बाद उन्हें मृत संजीवनी विद्या वरदान के रूप में मिली.