हर किसी के जीवन में गुरू का महत्वपूर्ण स्थान होता है. गुरू के मार्गदर्शन में ही व्यक्ति सफलता हासिल करता है. हिंदू धर्म में जहां बृहस्पति को देवताओं का गुरू कहा गया, वहीं शुक्राचार्य ने गुरू की भूमिका निभाते हुए असुरों को तमाम तरह की विद्याओं में पारंगत किया. केवल शुक्राचार्य ही ऐसे थे जिनके पास मृतकों को पुनर्जीवित करने की विद्या थी.
पुराणों के अनुसार शुक्राचार्य,, भृगु ऋषि और हिरण्यकशिपु की पुत्री दिव्या के पुत्र माने जाते हैं. कहते हैं एक बार जब भगवान विष्णु वामन के अवतार में राजा बलि से तीन पग भूमि मांगने आए थे, उस समय गुरू शुक्राचार्य ने बलि को आंख से सचेत किया. इस कारण वे एक आंख से काने हो गए. शुक्राचार्य ने भगवान शंकर को प्रसन्न करके मृत संजीवनी विद्या पाई थी. शुक्राचार्य को छोड़कर अन्य किसी के पास ये विद्या नहीं थी, यहां तक कि देवताओं के गुरू बृहस्पति को भी ये विद्या नहीं आती थी. असुरों के कल्याण के लिए शुक्राचार्य ने भगवान भोलेनाथ को प्रसन्न करके एक से बढ़कर एक वरदान पाए. अपनी प्रतिभा और कठोर साधना के जरिए उन्होंने नौ ग्रहों में शुक्र ग्रह के रूप में स्थान पाया है.